December 3, 2024
हमारे पूर्वजों के कर्मों का फल

हमारे पूर्वजों के कर्मों का फल – रियल लाइफ स्टोरी

कभी कभी हम यह देखते हैं की कोई इंसान सही होता है उसके कर्म सही रहते हैं फिरभी कर्मफल सही नहीं मिलता | कारण यह होता है हमें हमारे पूर्वजों के कर्मों का फल भी भोगना पड़ता है | आज की यह रियल कहानी इसी पर आधारित है और यकीन मानिये यह 100% सत्य है | इसे जरूर पढियेगा |

लगभग 1970 के समय में एक जमींदार थे | आज के समय में उनके बेटे और नाती दूसरों के यहाँ मजदूरी करते हैं | एकबार मैंने अपने पिता जी से इनके पतन का कारण पूछा तो पिता जी ने सारी कहानी बताई जो मैं आपके साथ साझा कर रहा हूँ |

पिता जी बताते हैं की ये जमींदार नहर विभाग में ठेकेदारी का काम करते थे | उनके पास आटा, चावल की मशीन थी | उनके यहाँ कई गाय और भैसें थी | जिनकी देख रेख के लिए आदमी भी थे | और बाहर जानवरों को जंगल में चराने ले जाने, नहलाने के लिए अलग आदमियों की व्यवस्था थी |

हमारे पूर्वजों के कर्मों का फल

हर सुबह जब सेठ जी चाय पीते थे तो उनके यहाँ लगभग 100 लोगों के लिए चाय बनती थी | सेठ जी एक लोकप्रिय व्यक्ति थे इसलिए रास्ते में आने – जाने वाले सभी परिचित लोग को बुलाकर चाय पिलाते थे | उनके पास लाइसेंसी बन्दूक भी थी | सब ठीक चल रहा था | यह सारी चीजें मेरे सामने हुई भी हैं |

आगे पिता जी बताते हैं की नहर विभाग में तो थे ही | वहां पर काम करने वाले कई मजदूर थे | जिसमे से वह कुछ का पैसा रोक लिए थे जो कि नहीं दे रहे थे | एक और घटना थी की वह थे तो 50 वर्ष के लेकिन एक 20 वर्ष की लड़की ने उनपर शोषण का आरोप भी लगाया था |

पिता जी बताते थे की इस घटना के समय उनके बैंक खाते में लगभग एक करोड़ रुपये थे | जब सारा मामला शांत हो गया था फिर भी बहुत पैसे बचे थे | पिता जी उनसे बोल रहे थे की कुछ पैसे से जमीन खरीद लो | लेकिन सेठ जी का उत्तर था – मेरे पास इतना है की मेरे बच्चे बैठे – बैठे खाएंगे तब भी नहीं ख़तम होगा |

हलाकि यह उस समय की बात है जब अच्छी उपजाऊ ज़मीन एक हजार रुपये बीघा थी | अगर सेठ चाहे होते तो 700-800 बीघा ज़मीन खरीद लेते | लेकिन उनके पैसों का घमंड यह सब नहीं करने दिया |

कुछ दिन के बाद वक्त ने ऐसी पलटी मारी की सबसे पहले उनकी चक्की (आटा – चावल बनाने की मशीन ) बिक गई | नहर की खुदाई में ठेकेदारी थी इसलिए खुदाई ख़तम तो ठकेदारी ख़तम | हलाकि लाइसेंस रेनुअल करने का विकल्प था लेकिन बस वही विनास काले विपरीत बुद्धि |

पैसों का आगमन ख़तम फिर धीरे – धीरे बैंक बैलेंस फिर चाय बुलाकर पिलाना भी बंद | फिर भी पैसों की कमी थी तो अबकी बार खेत बेचना सुरु | और यह सब घटना मुश्किल से पांच साल के अंदर की है |

कुछ खेत बिक गए तो बचे खेतों में अनाज पहले की अपेक्षा कम हो गए | हलाकि खर्चों पर कंट्रोल करना सुरु करते हैं | लेकिन कहा गया है न जब लक्ष्मी जी रूठती हैं तो जल्दी मानती नहीं हैं |

फिर एक समय ऐसा भी आया की खुद की दवाई के भी पैसे नहीं थे | इलाज तो सिर्फ इसलिए हो गया क्योकि डॉक्टर इनके परिचय का था | और वह इसलिए हुआ की जमींदारी के समय में इन्होने इस डॉटर की पढ़ाई में मदद की थी |

हमारे पूर्वजों के कर्मों का फल

हलाकि थोड़े दिन के बाद इनकी मृत्यु हो गई | अभी बंदूक बची थी | सेठ के बहुत करीबी रिस्तेदार बन्दूक लेना चाहते थे | वह इलाज से लेकर हर एक समय सेठ जी की मदद करते रहते थे | लेकिन सेठ के बच्चे बन्दुक देने से मना कर देते है और बन्दूक जमा करा देते हैं |

अब आज की स्थिति ऐसी है की सेठ के बच्चे मजदूरी कर के खाते हैं | बन्दूक सायद सड़ गई होगी लेकिन छुड़ा नहीं पाए | रिस्तेदार जो इनकी मदद करते थे वह भी इसी बन्दूक के चक्कर में गुस्सा होकर आना जाना बंद कर दिए हैं |

सेठ के बच्चे बहुत मेहनत करते हैं लेकिन पता नहीं कैसे सारे पैसे कहाँ गम हुए जा रहे हैं | फिलहाल पिता के कर्म में बच्चों का कोई हाथ नहीं है लेकिन हाँ जाने अनजाने में कभी पूर्व में कमाए पैसों के साझा बने हैं |

इसीलिए कहा जाता है की ” हमें अपने तथा हमारे पूर्वजों के कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है |” महाकवि घाघ की एक पुरानी कहावत है- बाढ़ै पूत पिता के धर्मे, खेती उपजै अपने कर्मे। यानी पिता के धर्म और अधर्म में पुत्र का भविष्य टिका होता है | |